
हिमाचल के पहाड़ी इलाकों में लोगों की स्थानीय देवताओं में गहरी आस्था है। यहां आए दिन कोई न कोई त्योहार और महायज्ञ होते रहते हैं। इसी कड़ी में जिला शिमला के रोहड़ू क्षेत्र की सपैल घाटी में दलगांव के देवता बकरालू मंदिर में 39 साल बाद होने वाले भूंडा महायज्ञ में बेड़ा सूरत राम (65) आस्था की खाई को नौवीं बार पार करने के लिए तैयार हैं।
तीन माह से वह मंदिर में पूरे नियम के साथ ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे हैं। आस्था की खाई को पार करने के लिए विशेष घास से खुद रस्सा तैयार किया है। करीब तीन इंच मोटे सौ मीटर लंबे रस्से को तैयार करने में बेड़ा के साथ चार अन्य सहयोगियों को करीब ढाई महीने का समय लगा। चार जनवरी को भूंडा महायज्ञ में बेड़ा डालने की रस्म में मुख्य भूमिका सूरत राम की ही रहती है। हजारों लोग उस पल का गवाह बनने के लिए सालों से इंतजार करते हैं। इसमें बेड़े को रस्से पर बैठाकर ढलान से होकर करीब 100 मीटर नाले या खड्ड के दूसरी ओर पहुंचाया जाता है।
किसे कहते हैं बेड़ा
रोहडू के इस क्षेत्र में इस परंपरा को निभाने वाले को बेड़ा, रामपुर व कुल्लू के कुछ क्षेत्रों में इस परिवार को जैड़ी के नाम से जाना जाता है। शिमला जिले के रामपुर व रोहडू जुब्बल क्षेत्र में एक ही परिवार इस रस्म को हर भूंडा महायज्ञ में निभाता है। इस परिवार में सूरत राम व कंवर सिंह दो भाई भूंडा महायज्ञ की इस परंपरा को अलग-अलग स्थानों पर लगातार निभा रहे हैं।
न बाल काटते न ही नाखून… भूंडा महायज्ञ के लिए बेड़ा को तीन महीने मंदिर में ही रहना पड़ता है। उसके लिए एक वक्त का भोजन मंदिर में ही तैयार होता है। अनुष्ठान के समापन होने तक न तो बाल और न ही नाखून काटे जाते हैं। अन्य भी कई प्रतिबंध रहते हैं।
21 साल में पहली बार निभाई थी रस्म
सूरत राम ने बताया कि 1980 में रामपुर बुशहर के शोली गांव में उन्होंने 21 साल की उम्र में भूंडा महायज्ञ में पहली बार बेड़े की रस्म निभाई थी। उसके बाद 1985 में दलगांव उसके बाद रामपुर बुशहर के खड़ाहन, डंसा, मझेवली, बोसाहरा, बेलू व समरकोट के पुजारली भूंडा महायज्ञ में इस रस्म को आठ बार निभा चुके हैं। नौवीं बार इस अनुष्ठान में मौका मिला है। जीवन में एक स्थान पर दूसरी बार आज तक किसी को मौका नहीं मिला। इसलिए स्वयं को वह भाग्यशाली मानते हैं। उनको दलगांव में दूसरी बार मौके मिला है। इसके बाद उनके लिए यहां कार्य करना संभव नहीं है।
पंचायत दलगांव के प्रधान विशेषर बांष्टू का कहना है कि इस अनुष्ठान के लिए पूरे क्षेत्र से नौ गांवों के लोग लंबे समय से तैयारी कर रहे हैं। हर घर में मेहमानों के लिए चार दिन तक लंगर की व्यवस्था रहेगी। पूरे अनुष्ठान में हजारों लोग यहां पहुंचेंगे।
भूंडा का है लंबा इतिहास
भूंडा महायज्ञ का वेदों में नरमेध यज्ञ के नाम से उल्लेख है। मंदिर कमेटी के मोहतमीन रघुनाथ झामटा का कहना है कि जाति विशेष के ही एक आदमी को लकड़ी की काठी पर चढ़ाकर रस्सी पर एक छोर से दूसरे छोर तक गिराया जाता है। बताते हैं कि किसी समय भगवान परशुराम को कुष्ठ रोग हुआ था। उन्हें ज्योतिषियों ने सलाह दी थी कि रस्से के ऊपर चढ़कर जब कोई व्यक्ति नदी या नाला पार करेगा, तभी बीमारी से राहत मिलेगी। उसके बाद जैली जाति के एक व्यक्ति ने इस रस्म को निभाया। दलगांव पंचायत के प्रधान विशेषर बांष्टू का कहना है कि पहले भूंडा एक पुश्त में एक बार यानी 70 से 80 साल के बाद ही होता था। इस बीच कुछ छोटे स्वरूप में धार्मिक अनुष्ठान जरूर होते थे। अब आर्थिक संपन्नता बढ़ने के साथ लोग देवता से आग्रह के बाद 30 से 40 साल में एक बार आयोजित कर रहे हैं।