हिमाचल प्रदेश को ‘देवभूमि’ भी कहा जाता है क्योंकि ऐसी मान्यता है कि यहां के कण-कण में देवताओं का वास है। हिमाचल एक पहाड़ी और प्राचीन सभ्यता से जुड़ा हुआ स्थल रहा है। यहां पर त्योहार और मेलों को स्थानीय लोग बड़े ही धूमधाम से मनाते हैं। जिला चंबा के जनजातीय क्षेत्र पांगी में 12 दिवसीय ‘जुकारू उत्सव’ का आगाज शनिवार से हो गया। अब पांगी घाटी में 12 दिन तक जुकारू उत्सव की धूम रहेगी।
उत्सव को आपसी भाईचारे का प्रतीक माना जाता है। आगामी शुक्रवार मध्यरात्रि को घाटी के लोग अपने घरों की दीवारों पर बली राजा का चित्र उकेरेंगे। इसकी प्राण प्रतिष्ठा की जाएगी। वहीं पड़ीद के पहले दिन सिलह के रूप में मनाया जाता है। इस दिन पंगवाल समूदाय अपने घरों में लिपाई पुताई करते है। शाम को घर के मुखिया भरेस भंगड़ी और आटे के बकरे बनाता है। ये बनाते समय कोई किसी से बातचीत नहीं करता है। पूजा सामग्री अलग कमरे में रखी जाती है। रात्रि भोजन के बाद गोबर की लिपाई की जाएगी।
वहीं, सुबह करीब तीन बजे बलीराज को गंगाजल के छिड़काव व विशेष पूजा अर्चना के बाद बली राजा का प्राण प्रतिष्ठा किया जाता है। इसके बाद 12 दिनों तक पांगी घाटी के लोग बलीराज की पुजा करते हैं। वहीं बालीराज के समक्ष चौका लगाया जाता है। गोमूत्र और गंगाजल छिड़कने के बाद गेहूं के आटे और जौ के सत्तुओं से मंडप लिखा जाता है। जिसे पंगवाली भाषा में चौका कहते हैं। मंडप के सामने दिवार पर बली राजा की मूर्ति स्थापित की जाती है।
इसे स्थानीय बोली में जन बलदानों राजा कहते हैं। आटे से बने बकरे, मेंढ़े आदि मंडप में तिनकों के सहारे रखे जाते हैं। मंडप बनाने वाला बली राजा की पूजा करता है। घाटी के बाशिंदे आटे के बकरे (चौक) तैयार कर राजा बलि को अर्पित करेंगे। धूप-दीये और चौक लगाकर 12 दिन तक राजा बलि की ही पूजा करेंगे। इस दौरान कुलदेवता से लेकर अन्य देवी-देवताओं की पूजा नहीं की जाती है। आज लोग एक-दूसरे के घरों में जाकर बड़े-बुजुर्गों का आशीर्वाद ले रहे है। जिसे स्थानीय भाषा में पड़ीद कहते हैं।
शनिवार को प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठकर लोग स्नानादि करके राजा बलि के समक्ष नतमस्तक होते हैं। इसके पश्चात घर के छोटे सदस्य बड़े सदस्यों के चरण वंदना करते हैं। बड़े उन्हें आशीर्वाद देते हैं राजा बलि के लिए पनघट से जल लाया जाता है लोग जल देवता की पूजा भी करते हैं। इस दिन घर का मुखिया ‘चूर’ की पूजा भी करता है क्योंकि वह खेत में हल जोतने के काम आता है।
पडीद की सुबह होते ही ‘जुकारू’ आरंभ होता है जुकारू का अर्थ बड़ों के आदर से है। लोग एक दूसरे के घर मिलने जाते हैं इस त्यौहार का एक अन्य अर्थ यह है कि सर्दी तथा बर्फ के कारण लोग अपने घरों में बंद थे इसके बाद सर्दी कम होने लग जाती है लोग इस दिन एक दूसरे के गले मिलते हैं तथा कहते हैं ‘तकडा’ ‘थिया’ और जाने के समय कहते हैं ‘मठे’ ‘मठे’ विश। लोग सबसे पहले अपने बड़े भाई के पास जाते हैं उसके बाद अन्य संबंधियों के पास जाते हैं।
तीसरा दिन मांगल या पन्हेई के रूप में मनाया जाता है ‘पन्हेई’ किलाड़ परगने में मनाई जाती है जबकि साच परगना में ‘मांगल’ मनाई जाती है। ‘मांगल’ तथा ‘पन्हेई’ में कोई विशेष अंतर नहीं होता मात्र नाम की ही भिन्नता है। मनाने का उद्देश्य एवं विधि एक जैसी ही है फर्क सिर्फ इतना है कि साच परगने मे मांगल जुकारू के तीसरे दिन मनाई जाती है तथा पन्हेई किलाड़ परगने में पांचवें दिन मनाई जाती है। मांगल तथा पन्हेई के दिन लोग भूमि पूजन के लिए निर्धारित स्थान पर इकट्ठा होते हैं इस दिन प्रत्येक घर से सत्तू घी शहद ‘मंण्डे’ आटे के बकरे तथा जौ, गेहूं आदि का बीज लाया जाता है। कहीं-कहीं शराब भी लाई जाती है।
अपने-अपने घरों से लाई गई इस पूजन सामग्री को आपस में बांटा जाता है भूमि पूजन किया जाता है कहीं-कहीं नाच गान भी किया जाता है इस त्यौहार के बाद पंगवाल लोग अपने खेतों में काम करना शुरू कर देते हैं। इस मेले को ‘उवान’ ‘ईवान’ आदि नामों से भी जाना जाता है।
यह मेला किलाड़ तथा धरवास पंचायत में तीन दिन तक मनाया जाता है। पहले दिन मेला राजा के निमित दूसरे दिन प्रजा के लिए मनाया जाता है और तीसरा दिन नाग देवता के लिए मनाया जाता है, यह मेला माघ और फागुन मास में मनाया जाता है। उवान के दौरान स्वांग नृत्य भी होता है इस दिन नाग देवता के कारदार को स्वांग बनाया जाता है। लंबी लंबी दाढ़ी मूछ पर मुकुट पहने सिर पर लंबी-लंबी जटाएं हाथ में कटार लिए स्वांग को मेले में लाया जाता है। दिन भर नृत्य के बाद स्वांग को उसके घर पहुंचाया जाता है इसी के साथ ‘ईवान मेला’ समाप्त हो जाता है।