शिमला के बिगरी धामी गांव में बिना मिट्टी के केसर उगाने में सफलता मिली है। इंस्टीट्यूट ऑफ हॉर्टिकल्चर टेक्नोलॉजी (आईएचटी) ने केंद्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के जैव प्रौद्योगिकी विभाग के सहयोग से इसे उगाया है। इस विधि में पौधों को पारंपरिक मिट्टी के बजाय एक विशेष माध्यम से उगाया जाता है। पौधों को पोषक तत्व देने के लिए ड्रिप सिंचाई और फर्टिगेशन जैसी तकनीकों का उपयोग किया जाता है। इस प्रक्रिया में केसर के कंदों को एक नियंत्रित और सुरक्षित वातावरण में उगाया गया। यह वातावरण विशेष रूप से तैयार मृदा रहित माध्यम में रखा गया, जो पौधों को आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करता है। इस तकनीक में पौधे मिट्टी से संबंधित बीमारियों से मुक्त रहते हैं और उनकी वृद्धि बेहतर होती है। किसानों को मिट्टी की गुणवत्ता या उर्वरक क्षमता की चिंता भी नहीं करनी पड़ती।
यह तकनीक नियंत्रित परिस्थितियों में पौधों को उगाने की सुविधा देती है, जिससे केसर की गुणवत्ता और उत्पादन दोनों में सुधार होता है। पारंपरिक खेती की तुलना में इस तकनीक से केसर की पैदावार में वृद्धि होती है। मृदा रहित माध्यम और ड्रिप सिंचाई के संयोजन से पानी का उपयोग भी बहुत कम होता है, जिससे जल संरक्षण में मदद मिलती है। यदि इस तकनीक को राज्य के अन्य क्षेत्रों में भी लागू किया जाए, तो इससे किसानों की आमदनी में सुधार होगा। हिमाचल प्रदेश के किसान इस नई तकनीक को अपनाकर न केवल अपनी खेती को अधिक लाभदायक बना सकते हैं, बल्कि राज्य को केसर उत्पादन में भी एक प्रमुख स्थान पर ला सकते हैं।
हिमाचल प्रदेश में अभी कहीं भी केसर की व्यावसायिक खेती नहीं हो रही है। आईएचटी की इस पहल का उद्देश्य केवल केसर उत्पादन को बढ़ावा देना और किसानों को आत्मनिर्भर बनाना है। यह तकनीक पर्यावरण के लिए भी अनुकूल है, क्योंकि यह मिट्टी और जल संरक्षण को बढ़ावा देती है। – सुरेंद्र शर्मा, वैज्ञानिक, इंस्टीट्यूट ऑफ हॉर्टिकल्चर टेक्नोलॉजी
नई तकनीक से बढ़ेगा उत्पादन किसानों को लाभ
बाजार में केसर की कीमत 2 से 3 लाख रुपये प्रति किलोग्राम होती है। इस नई तकनीक से उत्पादन बढ़ने से किसानों की आमदनी में भी वृद्धि होगी। किसान अब इस तकनीक से उच्च गुणवत्ता वाले केसर का उत्पादन कर सकते हैं, जो उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेचने का मौका देगा। इससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार होगा।