युद्ध में भाई को खोया, शक्कर पारे-बिस्कुट खाकर दुश्मन को दी मात, पढ़ें शूरवीरों की शौर्य गाथा

Vijay Diwas 2024 Brave Soldiers Of Himachal, Lost Brother in War, Defeated Enemy Know Full Story

1971 की जंग में भारत ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी थी। 16 दिसंबर 1971 को ऐतिहासिक जीत हासिल की। इसके फलस्वरूप बांग्लादेश का उदय हुआ। भारतीय सेना की जांबाजी के आगे पाकिस्तानी सेना ने महज 13 दिन में घुटने टेक दिए थे। इस युद्ध मे देश के 3800 से ज्यादा शूरवीरों ने शहादत का जाम पिया। हिमाचल के करीब 190 सैनिकों ने प्राणों की आहुति दी थी। युद्ध में किसी ने भाई को खोया तो किसी ने शक्कर पारे, बिस्कुट खाकर दुश्मन को मात दी। पूर्व सैनिकों की ऐसी हैं स्मृतियां:



तीन ने युद्ध में लड़ा, एक भाई शहीद हो गया

बिलासपुर जिले की ग्राम पंचायत निष्हान के गांव कुजेल के निवासी सुबेदार मंजर जयसिंह ने 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध की यादों को ताजा करते हुए बताया कि वह तीन भाई थे और तीनों काई में हिस्सा लिया। हालांकि छोटे भाई रतन राम युद्ध में हो गए। जय सिंह ने बताया कि वह 1966 में भर्ती हुए थे। उनकी पहली तैनाती अगरतला में हुई। वहां से उन्हें मिलिट्री पुलिस में भेजा गया और फिर गुवाहाटी (असम) से ढाका भेजा गया। उन्होंने बताया कि हमारी टुकड़ी ने पाकिस्तानी सैनिकों के हौसले पस्त कर दिए। युद्ध के दौरान मन में एक ही संकल्प था जंग में जीतकर ही लौटना है। उन्होंने  बताया कि यह युद्ध 3 दिसंबर 1971 को 3 दिन चला। 16 दिसंबर 1971 को भारतीय सेना ने पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। यदि युद्ध विराम की घोषणा न होती, तो हम कुछ ही दिनों में पाकिस्तान के और हिस्सों पर कब्जा कर लेते। हमारे सैनिकों में अद्भुत ऊर्जा और गुस्सा था जो हमें हर बार जीत की ओर ले गया। यह ऐसा युद्ध था जिसमें इतने बड़े पैमाने पर सेना को समर्पण करना पड़ा। 

पाकिस्तानी नागरिकों को 8 दिन दिया भोजन
 1971 की जंग के योद्धा रहे धर्मशाला के दाहनू निवासी सूबेदार मेजर पुरुषोत्तम ठाकुर ने बताया कि वह 19 दिसबंर 1968 को सेना की फस्ट डोगरा रेजिमेंट में भर्ती हुए थे। 3 दिसंबर 1971 को युद्ध की शुरू हुआ तो उनकी यूनिट को जम्मू-कश्मीर में तैनात कर दिया। भारत की तीनों सेनाओं ने पाकिस्तान के सैनिकों को मारते हुए आगे बढ़ना शुरू किया तो उनकी यूनिट 6 दिसंबर को पाकिस्तान ये सकरगढ़ में पहुंच गई। इसके बाद भारतीय सेना रावी पार करते हुए 7 दिसंबर की रात पाकिस्तान के नैनाकोट पहुंच गई थी। सुबह जब नैनाकोट में देखा तो पाकिस्तानी के कुछ लोग ही वहां बचे थे। वह भी बीमार और जख्मी हालत में थे। हमारे कंपनी कमांडर ने सैनिकों को पाकिस्तानी नागरिकों को खाना-पानी देने के लिए कहा। करीब आठ दिन तक हमारी रेजिमेंट की यूनिट वहां रही तो उन्हें खाना देती रही। यह कहते हैं कि 16 दिसंबर को अगर सीजफायर नहीं हुआ होता को भारतीय सेना पाकिस्तान के लाहौर पर कब्जा कर लेती। पुरुषोत्तम ठाकुर ने कहा कि इस दौरान उनकी रजिमेंट ने 10 जवान खोए थे।

कंघी न करने पड़े, इसलिए बाल कटवा लिए दो
 1971 के भारत-पाक युद्ध में राजस्थान के बाड़मेर बॉर्डर पर तैनात रहे सेवानिवृत्त कैप्टन जगदीश वर्मा 12 दिन तक विपरीत हालात में डटे रहे। नवंबर 1969 में बतौर सिपाही सेना में भर्ती हुए मंडी जिले के जगदीश वर्मा ने मात्र 20 साल की उम्र में भारत-पाक की 1971 की जंग में हिस्सा लिया था। 1998 में बतौर कैप्टन सेना से सेवानिवृत्त हुए। जगदीश वर्मा ने बताया कि दिसंबर 1971 में भारत-पाक के बीच जंग छिड़ गई। उन्होंने दिन-दिनभर बिना कुछ खाए-पीए गश्त की। प्लेन से हुई बमबारी में उन्होंने अपना एक साथी भी खो दिया। कंघी न करने पड़े, इसके लिए बाल तक कटवा लिए। शक्कर पारे और बिस्कुट खाकर काम चलाया। 12 दिन तक यह सब चलता रहा। संयुक्त मोर्चा ऑफ एक्स सर्विसमैन (जेसीओ एवं ओआर) हिमाचल प्रदेश के चेयरमैन सेवानिवृत्त कैप्टन जगदीश वर्मा ने कहा कि इस युद्ध में बहुत बड़ी जीत हुई थी लेकिन टेबल पर जीती हुई बाजी भारत हार गया था। शिमला समझौते के तहत 93 हजार पाकिस्तानी सैनिकों को ही वापस नहीं किया बल्कि 15,000 वर्ग किमी पश्चिमी पाकिस्तान का भाग भी पाक को लाैटा दिया। 

साल बांग्लादेश में रहकर दिया प्रशिक्षण
ऊना जिले के टाहलीवाल क्षेत्र के वायू गांव में रहने वाले 13 डोगरा रेजिमेंट के हवलदार अमर सिंह (80) 1971 युद्ध के नायकों में से एक हैं। उन्होंने बताया कि दिसंबर 1969 से लेकर दिसंबर 1971 तक वे बांग्लादेश में रहे थे। इस दौरान उन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ विद्रोह करने वाले बांग्लादेश के लोगों को युद्ध से जुड़ा प्रशिक्षण दिया। इसके साथ उन्होंने युद्ध में भी योगदान दिया। उन्होंने कहा कि 1971 की लड़ाई शुरू हुई तो यह बांग्लादेश के एक बड़े शहर दौलतपुर खुल्लां में थे। वहां पाकिस्तान सेना के साथ उनकी मुठभेड़ हुई। उन्होंने डटकर मुकाबला किया। हालांकि, लड़ाई में उन्होंने कई साथियों को खो दिया। कई अफसरों की जान चली गई, लेकिन युद्ध जीतना था और हौसला टूटने नहीं दिया। हवलदार अमर सिंह बताते हैं कि उन्होंने अपने कई साथियों के साथ मिलकर मशीन गनों से गोलियां की बौछार कर दी। वहीं उनकी ओर से प्रशिक्षित विद्रोही जिन्हें रजाकर बोला जाता था,उन्होंने भी भरपूर साथ दिया। उन्होंने कहा कि जंग जीती तो उन्हें ऐसे लगा कि साथियों की कुर्बानी की कीमत मिल गई।

बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहा स्वतंत्रता सेनानी तेजा सिंह का परिवार
स्वतंत्रता संग्राम और 1971 के भारत-पाक युद्ध में अपनी वीरता की मिसाल पेश करने वाले परिवार को आज सरकारी उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है। स्वतंत्रता सेनानी तेजा सिंह के परिवार की शौर्य गाथा इतिहास में दर्ज है, लेकिन उनकी विरासत आज दुर्दशा की शिकार है। 84 वर्षीय ऑनरेरी कैप्टन सुखदेव सिंह को 1971 के युद्ध में वीर चक्र से सम्मानित किया गया था, लेकिन आज भी अपने गगरेट क्षेत्र के गांव मवा कहोलां में बुनियादी सुविधाओं के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनके घर तक पहुंचने के लिए एक अदद रास्ता भी नहीं है, जिसकी फरियाद लिखित में वे जिलाधीश ऊना और स्थानीय विधायक से लगा चुके हैं।  एक ऐसा परिवार, जिसने स्वतंत्रता और भारत की सुरक्षा के लिए अपना सर्वस्व अर्पित किया, उसे आज उपेक्षा का दंश झेलना पड़ रहा है।  कैप्टन सुखदेव सिंह के पिता, तेजा सिंह, आजाद हिंद फौज के स्वतंत्रता सेनानी थे। उनके बड़े बेटे सुखचैन सिंह 1971 के लोंगेवाल युद्ध में राजस्थान की रेतीली सरहद पर शहीद हुए थे तथा दूसरे बेटे कैप्टन सुखदेव सिंह ने उसी युद्ध में अपनी असाधारण वीरता का प्रदर्शन किया था और वीर चक्र हासिल किया था।

बलिदानी विशन दास के नाम से जाना जाए दियाडा स्कूल
28 मार्च 1942 को ऊना जिले के गांव दियाडा में जन्मे विशन दास पुत्र कालूराम 28 मार्च 1962 को सेना में भर्ती हुए थे। उन्होंने सेना में 9 साल 259 दिन तक नौकरी की। 1971 के युद्ध में विशन दास वीरगति को प्राप्त हुए । वे 15 डोगरा रेजीमेंट में लांस नायक पद पर तैनात थे। 1965 का भी इन्होंने युद्ध लड़ा। उन्होंने संग्राम सेवा मेडल, रक्षा मेडल, समर सेवा मेडल हासिल किया। बिशन दास की पत्नी 75 वर्षीय कमलेश कुमारी ने कहा कि पहली पेंशन उन्हें 153 रुपये मिली थी। आज भी समय के अनुसार पेंशन मिल रही है। बलिदानी के भाई प्रीतम सिंह और दूसरे चचेरा भाई बीएसएफ में सहायक कमांडेंट के पद पर तैनात हैं।  शहीद के घर तक रास्ता पक्का होना चाहिए और गांव के सीनियर सेकेंडरी स्कूल दियाडा का नाम शहीद विशन दास के नाम पर होना चाहिए। ऐसी मांग बलिदानी की पत्नी और चचेरे भाई ने की है। कहा कि पहले आर्मी में जब कोई भी जवान शहीद होता था उसकी पार्थिव देह घर पर नहीं आती थी । इसलिए विशन दास की पार्थिव देह घर नहीं आई। केवल उनका संदूक और कागजात ही घर पर पहुंचे थे और लीग्राम से ही उनके बलिदान होने की सूचना मिली। 

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