2010-11 में जहां प्रदेश में 8.7 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर सेब उत्पादन हुआ था, वहीं 2023-24 में यह आंकड़ा घटकर 4.3 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर रह गया। इसका मुख्य कारण मौसम में हो रहे बदलाव और रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर अत्यधिक निर्भरता से मिट्टी की उपजाऊ शक्ति का खत्म होना माना जा रहा है।
वैज्ञानिकों के अनुसार कभी ज्यादा बारिश और ओले पड़ने और कभी दो से तीन महीने तक लगातार सूखा पड़ने से फसलों के उत्पादन पर गहरा प्रभाव पड़ रहा है। हिमाचल में फल उत्पादन करीब 76 फीसदी क्षेत्र में होता है। 46 प्रतिशत में सेब की खेती की जाती है। बढ़ती जनसंख्या और संतुलित आहार के प्रति जागरूकता के कारण भारत में फलों की मांग तेजी से बढ़ रही है। इस मांग को पूरा करने के लिए मौजूदा बगीचों में उत्पादन में सुधार करना आवश्यक है। कुछ वर्षों में राज्य में सेब उत्पादकता में काफी गिरावट आई है। खराब प्रबंधन पद्धतियां, रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर अत्याधिक निर्भरता के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव हिमाचल प्रदेश के एक समय फलते-फूलते सेब उद्योग के लिए गंभीर चुनौती बन गए हैं।
उद्यान विभाग के निदेशक विनय सिंह ने कहा कि सेब उत्पादकता में गिरावट का मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन है। विभाग एचपी एचडीपी के तहत उच्च घनत्व वाले बगीचों को बढ़ावा दे रहा है और इसके परिणाम जल्द आएंगे। समय-समय पर उचित प्रबंधन के लिए उचित दिशा निर्देश जारी किए जाते हैं।
कृषि विज्ञान केंद्र शिमला की प्रभारी डॉ. उषा शर्मा ने बताया कि प्राकृतिक पद्धतियों में स्वस्थ मृदा पारिस्थितिकी तंत्र फलों की दृढ़ता, स्वाद, शर्करा की मात्रा और रंग को बढ़ाकर फलों की गुणवत्ता को बढ़ाता है। रासायनिक पदार्थों के उपयोग को समाप्त करके, प्राकृतिक खेती पर्यावरण प्रदूषण को कम करती है। किसान स्थानीय रूप से उपलब्ध सामग्री जैसे गाय का गोबर, गोमूत्र, दरैक के पत्ते आदि का उपयोग करके अपना खुद का जैविक मिश्रण तैयार कर सकते हैं।