छूआछूत आज भी देश के अधिकतर हिस्सों में एक विकराल समस्या है, लेकिन पूर्व में रजवाड़ों के राज में जाति और कुल श्रेष्ठता को लेकर ब्राह्मणों में ही विवाद हो गया था। मामला राज दरबार तक भी पहुंचा और 100 साल से ज्यादा समय तक सुनवाई हुई। विवाद पैदा होने का कारण उच्च कुल के ब्राह्मणों का ग्रामीणों ब्राह्मणों के हाथ से बना भात (चावल) न खाना था।
यह घटना पूर्व की सुकेत रियासत (अब सुंदरनगर) के भाग रहे करसोग क्षेत्र में घटी थी। इसका खुलासा पांगणा क्षेत्र में मिली एक पांडुलिपि से हुआ है। 12 पन्नों की पांडुलिपि मंडयाली नागरीय टांकरी में लिखी गई है। पांडुलिपि से पता चलता है कि पूर्व सुकेत रियासत के राजाओं ने सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ भी मोर्चा खोल रखा था।
पांडुलिपि के मुताबिक वर्ष 1791 में सुकेत के तत्कालीन राजा विक्रम सेन के कार्यकाल में एक धार्मिक समारोह का आयोजन हुआ था। इसमें रियासत के चार नगरों ममेल, करसोग, पांगणा और चुराग में रहने वाले ब्राह्मणों ने खेतीबाड़ी करने वाले ब्राह्मणों द्वारा पकाए गए भात (चावल) का अपनी कुल श्रेष्ठता का तर्क देते सेवन करने से मना कर दिया। इस पर नागरीय ब्राह्मणों के खिलाफ राज दरबार में मुकदमा किया गया।
मुकदमे की सुनवाई के दौरान राजा ने नागरीय ब्राह्मणों को ग्रामीण ब्राह्मणों के हाथ का भात खाने का फैसला सुनाया, लेकिन उच्च कुल और जाति के गुरूर में नागरीय ब्राह्मणों ने राजा के आदेश का पालन न किया था। इसके बाद यह मुकदमा पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहा। इस अवधि में इस पहाड़ी रियासत पर पांच शासक हकुमत कर चुके थे। इसी दौरान 1893 के आसपास राजा दुष्यंत निकंदन ने अपने अहम फैसले में समानता के अधिकार की मुखालफत करने वाले नागरीय ब्राह्मणों को कारावास में डाल दिया।
पूर्व सुकेत रियासत की राजधानी रही पांगणा नगर से खोजी गई एक प्राचीन पांडुलिपि में इस मुकदमे का विस्तार से ब्योरा मिला है। 12 पन्नों में सिमटी इस पांडुलिपि से साफ हो जाता है कि पूर्व सुकेत रियासत के धर्मभीरु राजा छूआछूत के सख्त खिलाफ थे। राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के सदस्य रहे पांगणा निवासी डॉ. जगदीश शर्मा ने बताया कि यह पांडुलिपि मंडयाली नागरीय टांकरी में लिखी गई है। यह पांडुलिपि पूर्व सुकेत रियासत के इतिहास का एक अहम हिस्सा है, जिसका संरक्षण कर इसे संजोया जाएगा।