हिमाचल के बगीचों में 4 साल में माइट कीट का प्रकोप 50 फीसदी बढ़ा, सर्वे रिपोर्ट में खुलासा

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हिमाचल के बगीचों में माइट कीट का प्रकोप बागवानों की सबसे बड़ी समस्या बन चुका है। इसकी चपेट में आने के बाद पौधा दो से तीन साल में कमजोर होकर सूखना शुरू हो जाता है। प्रदेश के सेब बगीचों में चार साल में माइट रोग के प्रकोप में 50 फीसदी बढ़ोतरी हुई है।

क्षेत्रीय बागवानी अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केंद्र मशोबरा के कीट वैज्ञानिकों की सर्वे रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार बगीचों में पहले आम तौर पर यूरोपियन रेड माइट का प्रभाव देखने को मिला। लेकिन अभी दो से तीन वर्षों से ज्यादातर बगीचे टू स्पॉटेड माइट से ग्रसित दिखना शुरू हो गए हैं। कीट वैज्ञानिक डॉ. संगीता शर्मा ने बताया कि माइट पहले सेब के बगीचों में ही पाया जाता था, लेकिन अब इसका प्रकोप नाशपाती, प्लम, खुमानी, चेरी सहित अन्य स्टोन फ्रूट में भी दिखाई देने लगा है। यह माइट ग्लास हाउस और पॉलीहाउस में पैदा होने वाली सब्जियों, फूलों और फलों को अधिक हानि पहुंचती है, लेकिन कुछ समय में यह सेब के बगीचों में हानि पहुंचाती हुई पाई गई है। यह कीट हल्के पीले रंग की होती है, जिसके शरीर पर दो काले रंग के निशान पाए जाते हैं। सर्दियों में यह माइट अपने शरीर का रंग बदलकर गहरी संतरी रंग की होती है। यह माइट जाली बनती है और एक से दूसरे पत्ते पर अपने जाल की सहायता से चलती रहती है। साथ ही उन्हें सिकोड़ देती है।

माइट केवल पत्तों पर आक्रमण करती है। शुरू में यह पत्ते के निचले भाग से रस चूसती हैं और पत्ते के हरे रंग (क्लोरोफिल) को नष्ट कर देती हैं। शुरू में पत्तों पर छोटे-छोटे हल्के निशान दिखाई देते हैं और धीरे-धीरे पत्ते अपना हरा रंग खोने लगते हैं। यदि माइट के संक्रमण को समय पर न रोका जाए तो, कुछ ही वर्षों में पौधा सूखने लगता है।

अत्यधिक कीटनाशकों का प्रयोग है माइट प्रकोप बढ़ने का मुख्य कारण
सर्वेक्षण में यह खुलासा हुआ कि हिमाचल के सेब के बगीचों में माइट की समस्या का मुख्य कारण अत्यधिक कीटनाशकों का प्रयोग है। इसके चलते मित्र कीट और मित्र माइट नष्ट हो रहे हैं। जिन बगीचों में नाइट्रोजन खाद का अधिक उपयोग किया जाता है, वहां भी माइट की संख्या में बढ़ोतरी पाई गई है। अधिक फफूंद नाशक दवाइयां का प्रयोग भी माइट की समस्या को उत्पन्न कर सकता है।

हिमाचल में 1990 में पाया गया था माइट
हिमाचल प्रदेश में माइट की समस्या सबसे पहले 1990 में कोटखाई, दलाश व थानेदार के इलाके में पाई गई थी। 1995 में माइट ने सेब के बगीचों में उग्र रूप धारण कर एक स्थाई नाशीजीव बन गया। इसके बाद 1996 में 40 फीसदी और 2000 में 70 फीसदी तक इसका आक्रमण पहुंच गया था। इसके बाद कुछ समय तक इसका प्रभाव कम हो गया था। वहीं अब चार से पांच वर्षों से दोबारा इसका प्रभाव बढ़ना शुरू हो गया है।

महीने में एक से अधिक बार न करें माइटनाशी का प्रयोग
क्षेत्रीय बागवानी अनुसंधान एवं प्रशिक्षण केंद्र मशोबरा की कीट वैज्ञानिक डॉ. संगीता शर्मा ने सलाह दी है कि बागवान माइटनाशी का प्रयोग एक से अधिक बार न करें। इसका छिड़काव महीने में एक बार ही करें और एचएमओ का प्रयोग साल में एक बार। उन्होंने कहा कि प्रशिक्षण केंद्र मशोबरा का 2009 से माइट कीट पर ही ऑल इंडिया नेटवर्क प्रोजेक्ट चल रहा है। बगीचों में माइट का आक्रमण दिखाई दे तो बागवान अनुसंधान केंद्र मशोबरा से पौधों की पत्तियाें की जांच करवाएं और वैज्ञानिक की सलाह के अनुसार ही माइटनाशकों का इस्तेमाल करें।

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