हिमाचल में लोकसभा चुनाव की जंग में निर्दलीय प्रत्याशी दम नहीं दिखा पाए हैं। अपने दमखम पर चुनावी मैदान में भाग्य आजमाने वाले इन प्रत्याशियों को मतदाता नकारते ही रहे हैं। 1951-52 में बिलासपुर के अंतिम शासक राजा आनंद चंद ने ही बतौर आजाद प्रत्याशी लोकसभा चुनाव जीता है। प्रदेश के मतदाताओं ने राष्ट्रीय दलों और उनके चुनावी चेहरों पर ही मतदाताओं ने भरोसा जताया है।
हालांकि, विधानसभा चुनावों का ट्रेंड कुछ अलग रहा है। विधानसभा चुनावों में निर्दलियों का थोड़ा बहुत बोलबाला जरूर रहता आया है। लोकसभा के पिछले चार चुनावों व उपचुनावों की बात करें तो 8 प्रत्याशी ऐसे रहे, जिन्होंने प्रदेश की चार सीटों पर दलीय सियासत को दरकिनार कर अपने दम पर चुनावी हुंकार भरने का साहस जुटाया।
इन चुनावों में भाजपा और कांग्रेस के ही प्रत्याशियों को ही मतदाताओं ने सिर-आंखों पर बिठाकर बंपर जीत दिलाई। कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से 2004 में 2्र, 2009 और 2014 में एक और 2019 में दो निर्दलीय प्रत्याशी मैदान में उतरे थे। शिमला सीट पर 2014 की जंग एक निर्दलीय प्रत्याशी ने भी लड़ी।himachalnewsalert हमीरपर सीट पर 2007-08 के उपचुनावों में एक-एक निर्दलीय चुनाव में उतरा।
मंडी संसदीय क्षेत्र में इस अवधि में 3 निर्दलियों ने ही दम भरा लेकिन, इससे पहले के आम चुनवों में यहां से निर्दलीय प्रत्याशियों की मानों झड़ी से ही लगती रही। 1996 में 9, 1991 में 8, 1989 में 1 और 1984 में 4 निर्दलियों ने चुनावी जंग में भाग्य आजमाया। खास बात यह रही कि निर्दलीय प्रत्याशी मतदाताओं को रिझाने और उनका भरोसा जीतने में सफव नहीं हो पाए। नतीजे आए तो निर्दलीय जमानत भी बचाने में नाकाम रहे।
विधानसभा चुनाव में नसीब होती रही जीत
लोकसभा चुनाव से इतर विधानसभा चुनाव का ट्रेंड निर्दलीय प्रत्याशियों को लेकर कुछ अलग रहा है। प्रदेश में विधानसभा चुनावों में निर्दलीय प्रत्याशियों को भी जीत नसीब होती रही है। पिछले 4 विस चुनावों में 13 निर्दलीय प्रत्याशी जीत दर्ज करा चुके हैं। 2022 के विस चुनाव में तीन, 2017 में दो, 2012 में पांच और 2007 में तीन निर्दलीय प्रत्याशी जीतकर विधानसभा पहुंचे।